होलोकॉस्ट : महाविनाश की अनंत लीला [प्रविष्टि - 5, खून की गंगा में तिरती मेरी किश्ती]

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“चाहे वो महाभारत काल हो, कलिंग का मैदान, विश्वयुद्ध या फिर नाज़ियों द्वारा यहूदियों को मौत के घाट उतारना; आप इतिहास के सारे पन्ने पलट दीजिये, विश्व के सम्पूर्ण मानव इतिहास में धरती पर इतना खून कभी नहीं बहा जितना कि आज हम रोज़ बहा रहे हैं।”

मानव सभ्यता ने तथाकथित ‘विकास’ के साथ बहुत सारा उच्च-तकनीक युक्त मौत का साजो-सामान तैयार किया है, एटम बम्ब, न्यूक्लियर बम्ब, रासायनिक बम्ब, जैविक बम्ब, मिसाइलें, ड्रोन व न जाने क्या-क्या। परंतु सर्वाधिक विनाश किया है उसकी बनाई विद्युत् से स्वचालित तीव्र गतिशील मशीनों ने, जो कि एक ही दिन में इतना खून बहा देती है जितना एक कसाई जीवन-भर ‘मेहनत’ कर भी न बहा सके। इन स्वचालित यंत्रों को ‘मशीन’ कहना अपने आपको गुमराह करना है। आज इनसे अधिक घातक हथियार और कोई नहीं है। और ये सारा खूनी मंजर होता है पर्दे के पीछे, आम उपभोक्ता की पहुँच से कोसों दूर। आम उपभोक्ता का किसी भी कत्लखाने में प्रवेश वर्जित होता है। कत्लखानों के स्वामियों को डर लगता है कि वहाँ के थरथराने वाले भयावह लीलागृह पर दृष्टिपात होते ही किसी की छुपी संवेदनाएं न जागृत हो जाये, कहीं कोई संवेदनाओं पर अचानक हुए इस कठोराघात से बेहोंश ही न हो जाये। अतः ‘शिष्ट’ व ‘सभ्य’ कसाईखाने यह दिल-दहलाने वाला घृणिततम ‘कार्य’ पूर्ण गोपनीयता का आवरण ओढ़े करते हैं। ताकि उनका ग्राहक (जिसके पैसों की खातिर ही यह सब होता है) इन सबसे बेखबर होकर उनको निरंतर ऊंचे दाम देता रहे। इसी रणनीति को अपनाकर यह उद्योग इस विराट स्तर तक पहुंचा है और गुणाकार (चरघातांकी) रूप से बढ़ता ही जा रहा है। बीटल्स के गायक पॉल मेककार्टनी ने बिल्कुल सटीक कहा था, “यदि कत्लखानों की दीवारें शीशे की बनी होती तो आज दुनिया का हर व्यक्ति शाकाहारी होता।” (इस कथन को ठीक-ठीक गृहण करने के लिए यहाँ 'शाकाहारी' का अर्थ 'निरवद्याचारी' समझना चाहिए)।

परन्तु बात केवल शाकाहार या निरवद्याचार से संबंधित ही नहीं है; इस तरह निरीह जानवरों पर ज़ुल्म ढ़हा कर कमाई जा रही बेशुमार दौलत के बल पर पूँजीवाद पनप रहा है। इन पैसों के बल पर तो सरकार और कानून तक को खरीद लिया जाता है। यहाँ तक कि सभी राष्ट्र की सरकारें इन उद्योगों के पक्ष में कानून बना रही है! पशु-पालन को कृषि-उद्योग का दर्जा दिया जाने लगा है। उदाहरणार्थ, कनाडा सरकार सीलों के बच्चों को मारने का सालाना शासकीय कोटा आवंटित करती है यानि कि एक नियत-परिमाण (जो की इस वर्ष 4,68,200 सील है) तक सील का शिकार करना राजकीय रूप से स्वीकृत है, उससे अधिक का शिकार ही गैर-कानूनी करार दिया जा सकता है, अन्यथा नहीं! इसी प्रकार कई राष्ट्र एवं स्थानीय प्रशासन निर्णय करते हैं कि अमुक जलाशय से कितनी मछलियाँ व अन्य जलीय-जीव मारे जायें तो वह गतिविधि कानून के दायरे में मानी जाए।

हमारे देश में तो पशु-पालन एक आयकर-मुक्त उद्योग है। इतना ही नहीं, इसका ‘विकास’ करने के लिए सरकार सब्सिडी और ग्रांट भी देती है, मुफ्त प्रशिक्षण देती है। कई महाविद्यालय, विश्वविद्यालय, प्रजनन-केंद्र, चिकित्सालय, शोध-संस्थान, विक्रय-मंडियाँ खोलकर इस उद्योग को बढ़ावा देने के लिए एक सुव्यवस्थित ढांचा स्थापित किया जा चुका है। इतना ही नहीं, पशुओं से निर्मित उत्पादों को स्वास्थ्यवर्द्धक बताकर विज्ञापनों के माध्यम से एवं विभिन्न सरकारी स्कीमों के तहत प्रोत्साहित भी किया जाता है। आज इसमें कोई संदेह नहीं कि पूँजीवादी अर्थव्यवस्था में राष्ट्र की सरकारें परोक्ष रूप से बड़े-बड़े उद्योगपति ही चलाते हैं क्योंकि इस पूंजीवादी व्यवस्था में धन की महिमा सर्वत्र सर्वोपरि हो गई है।

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इसी श्रंखला में आगे पढ़ें: प्रविष्टि – 5, होलोकॉस्ट : महाविनाश की अनंत लीला, क्रमांश. - २

धन्यवाद!

सस्नेह,
आशुतोष निरवद्याचारी



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