भाग – 2: मौत के सौदों में व्यापारिक-लाभ और सिद्धांतवाद का खेल [खून की गंगा में...](गतांश से आगे)

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प्रविष्टि – 6
खून के अश्रु पीते प्यासे मासूम!
(गतांश से आगे)

क्या अधिक-शोषण की अपेक्षा कम शोषण वाले उत्पादों का उपभोग बेहतर नहीं हैं?

इस तथ्य से कोई इनकार नहीं कर सकता कि किसी भी प्रकार के पशु-उत्पाद को प्राप्त करने में पशुओं का शोषण अन्तर्निहित है। बिना किसी शोषण के कोई भी पशु-उत्पाद प्राप्त नहीं किया जा सकता। ये अलग बात है कि किसी प्रक्रिया में शोषण अधिक है और किसी में थोड़ा कम। न जाने क्यों हम अधिक शोषण वाली प्रक्रिया से कम शोषण वाली प्रक्रिया में अधिक रुचि लेते हैं और उसके अधिक दाम भी देने को तैयार रहते हैं, बनिस्बत इस पर ध्यान केन्द्रित करने के, कि शोषण तो अंश मात्र भी नहीं होना चाहिये।

क्या आप नहीं जानते कि कम शोषण से तैयार होने वाले पशु-उत्पादों की तुलना में पूर्णतः शोषण-मुक्त वैकल्पिक उत्पाद काफी सस्ते होते हैं? आश्चर्य है कि इस के बावजूद भी हम लोग कम-शोषण और अधिक-शोषण के फ़िज़ूल के तर्क-कुतर्क के जाल में उलझे हुए हैं! यह विवाद तो बुनियादी रूप से ही गलत है। हमें शोषण एवं शोषण-शून्य के विकल्पों में से एक को चुनना है, न कि कम-शोषण और अधिक-शोषण के विकल्पों में से किसी एक को। हमने शोषण को मापने की कोई इकाई अब तक ईज़ाद नहीं की है। क्यों? क्योंकि शोषण तो शोषण ही है, क्या अधिक और क्या कम!

आप किसी को चाहे किसी भी रीति से फांसी दें, सज़ा तो मौत की ही होगी, न? किसी स्वस्थ प्राणी को यूथनेसिया रीति से मौत की नींद सुलाया जाए अथवा बेरहमी से काटा जाए, इस तथ्य को नहीं नकारा जा सकता कि अंजाम में मौत तो निश्चित ही है। अतः कोई कम-शोषण करे या अधिक शोषण करे, वह इस आधार पर सहानुभूति का हक़दार नहीं हो सकता।

द्वितीय विश्वयुद्ध में हीरोशिमा व नागासाकी में अलग-अलग एटम बम्ब गिराए गए, एक शहर में दूसरे की अपेक्षा कुछ कम जानें गई। तो क्या जिस शहर में कुछ कम मौतें हुई, उसका हत्यारा दूसरे की अपेक्षा कम दोषी था? उसके प्रति आपको तुलनात्मक रूप से अधिक सहानुभूति होगी? चलो, एक और दृश्य लो। एक खूनी ने मात्र सौ लोगों की हत्या की और दूसरे अपराधी ने पांच सौ लोगों की हत्या के साथ ही दो सौ युवतिओं का बलात्कार और सैकड़ों जगह डाकजनी व लूटपाट की घटनाओं को अंजाम दिया। परंतु, फिर भी कानून दोनों को एक सामान सज़ा ही देगा। ऐसा क्यों?

कहने का तात्पर्य यह है कि जब अपराध इतना घोर और घृणित हो जाता है, तब उसके शिकारों और आहतों की सभी संख्याएँ बेमानी हो जाती है। शोषण का स्तर जब सारी हदें पार कर दे तब अधिक-शोषण और कम शोषण का पैमाना भी बेमानी हो जाता है। कम हो या ज्यादा, शोषण बस शोषण ही है, यह विवरणातीत है। शोषण-शून्यता ही एकमात्र न्याय है, शेष सब अन्याय ही अन्याय।

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इसी श्रंखला में आगे पढ़ें:

प्रविष्टि – 7 जब खरपत को मिली “जीने की सज़ा”

धन्यवाद!

सस्नेह,
आशुतोष निरवद्याचारी



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